सफर…


मैं सुलझी हुई
अनसुलझी
पहेली हूं
ना सोना, ना जगना
ना रोना, ना हसना
ना दर्द है, ना ठीक हूं
ना जख़्म है, ना मरहम है
नज़र, ज़ुबान, सुनने की ताकत
जिस्म मे से घटा दी है
मैं उसमें हूं
लेकिन उसका हिस्सा नहीं
मैं बुरा नहीं
पर नापसंद हूं
रुका हूं, पर सफर में हूं

तलाश है
पर खोया कुछ भी नहीं
मंजिल रस्ते में बदल गई
और नदी का पानी कांच
आग ठंडी बर्फ हुई
ठंड में ठिठुरता प्यासा हूं
रुका हूं, पर सफर में हूं

हर्फ हैं,
पर लफ्ज़ और वाक्य ग़ुम हैं
कलम है, स्याही है
कोरे सफे नहीं मिल रहे

लिखूंगा
पेड़ों पर
फूलों पर
पत्तों पर
सूरज पर
चांद पर
धरती पर
अंबर पर
जिस्मों पर
रुहों पर

उस दिन लिखूंगा
जिस दिन ये सब कोरे मिलेंगे
फिलहाल रुका हूं, पर सफर में हूं


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