जनाब प्रसून पर नहीं मुझे तों सवालों से भागने वालों पर एतराज़ है

बात सिर्फ प्रसून जोशी की नहीं गीतकारों की उस पीढ़ी की है या कहूं फिल्मी लेखकों की है जिन्होंने साहिर द्वारा दिलवाए सम्मानजनक स्तर को गिरा दिया। मैंने सवाल प्रसून की प्रतिभा पर और उनके गीतों पर नहीं उठाए न ही मुझे उनके किरदार पर कोई शक है, यहां तक की पिछली पोस्ट में मैंने उनका ‘पाठशाला’ जैसे ठेठ शब्दों के प्रयोग की सराहना की है। मेरा सवाल तो ये है कि आखिर इस दौर का स्थापित गीतकार (प्रसून जोशी), जो खुद कहता है कि अब वो काफी हद तक अपनी शर्तों पर काम करता है, तो वो जिस विधा का प्रतिनिधित्वत करता है उससे जुड़े सवालों से क्यों बचता है? क्या वो सिर्फ कैमरे के सामने आपनी मौजूदगी भर दर्ज करवाने तक सीमित रहेगा?

कई यादगार गीत देने वाले साहिर लुधियानवी की किसी फिल्म के लिए गीत लिखने की एक ही
शर्त होती थी, संगीतकार से एक रुपया ज्यादा लूंगा। सालों तक ये परंपरा चलती रही। बात सिर्फ एक रुपए या ज्यादा पैसे के नहीं थी, बात सम्मान और गीतकार के रुतबे की थी।
गुलज़ार का अपना अंदाज है और वो इस स्तर पर हैं कि बिना कहे ये शर्त खुद ब खुद पूरी हो
जाती है। आपने उन्हें कभी कैमरे के पीछे दौड़ते देखा है? नए दौर के बहुतेरे गीतकार पार्ट टाइम हैं, प्रोड्यूसर संगीतकार के इशारों
पर नाचते हैं, तभी तो खिट पिट जैसे घटिया दर्जे के गीत लिखे और गाए जाते हैं।

क्या आप उससे ‘गेंदा फूल’ की खुराफत के लिए जवाब नहीं चाहते?
-अगर नहीं तो आप भी उस गीत के असल रचैयता और उससे जुड़े समूह जिंदा और मरहूम लोंगों से नाइंसाफी में बराबर के भागीदार हैं।
-अगर हां तो आप मुझसे सहमत हैं। वो पत्रकार भी तो यही सवाल पूछ रहा था। फिर प्रसून को जवाब देने से एतज़ार क्यों था? क्या सिर्फ कैमरे के सामने ही सवालों के जवाब दिए जाने चाहिए?
सतीश चंद्र सत्यार्थी जी की बात से भी मैं पूरी तरह सहमत हूं, कैमरे के सामने आने का लोभ सब को होता है। सच तो ये है फिल्म/टीवी क्षेत्र में जाने का मकसद ही कैमरे के सामने आना होता है। प्रसून, मैं, सतीश, जसदीप हर कोई इस पोस्ट को पढ़ने वाला कहीं ना कहीं कभी ना कभी कैमरे के कीड़े से कटना चाहता है। कोई हर्ज़ भी नहीं मैंने कब कहा ये बुरा है। मैंने तो इतना कहा, कैमरा बंद होते ही कैसे एक ‘जिम्मेदार पब्लिक फिगर’ गैर जिम्मेदार हो जाता है। उसे इस बात पर पछतावा है कि एक गैर-कैमराधारी ने उनसे सवाल पूछे और वो जवाब देते रहे।
जसदीप भाई!!!फिल्म नगरी में तो चोरी होती रहती है, तो क्या इसे परंपरा मान कर बदस्तूर जारी रहने दे। आवाज़ ना उठाएं। आपकी जानकारी के लिए बता दूं हाल ही में रिलीज़ हुई फिल्म दोस्ताना के एक गीत के लिए करन जौहर ने करोड़ों देकर रिलीज़ से तीन दिन पहले जान छुड़ाई थी। वो बात अलग है कि दावा करने वाला एक बड़ा प्रॉडक्शन हाउस था और अदालत जा पहुंचा था। उसने अपनी रायलटी वसूल कर ली। वो छतीसगढ़ वाले भोले लोग बस प्यार से क्रडिट देने की इल्तजा कर रहे हैं तो किसके कान पर जूं रेंगती है।

आज छतीसगढ़ से एक गीत चुराया है तो इतना चर्चा है, पंजाब से हर रोज़ कितने गीत चुराते हैं बॉलीवुड वाले, रोज़ आवाज़ उठने लगे तो बॉलीवुड के आधे संगीतकार बेरोज़गार हों जाएं। सिंह इज़ किंग हो या हिमेश के कर्ज़ का ‘सोहणिए जे तेरे नाल दगा मैं कमावां’ सालों पहले हिट हो चुके पंजाबी गीत हैं। पूरा देश इन्हें चोरी होने के बाद गुनगुना रहा है। अब बताईए चुप रहूं, भागने देता रहूं इन नामी लोगों को सवालों से। ठीक है पत्रकारी भी अब धंधा है, लेकिन ज़मीर कैसे मार दूं। आप कहें तो…???
मेरी नज़र में तो सवालों से भागना चोरी से भी बड़ा गुनाह है। नेताओं का ये गुण संवेदनशील लेखकों में आना चिंतन का विषय है।आपको इस पर हैरानी नहीं होती मुझे इस बात का भी अफसोस है|


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