तुम्हारे गढ़े समाज की
नज़रों में नज़रबंद
सवालो की सलाखों में
कैद मेरी रूह को
दे दो आज़ादी
मौत तो मेरे बस में नहीं
मुझे दे दो जीने की आज़ादी
चाहे मुंडन करवा लूं
या हो जाउूं जटाधारी
दे दो आज़ादी
अपना सर बचाने की
घुमूं नंग-धड़ंग
दिखावे के सजावटी कपड़ों से
कर दो आज़ाद मुझे
मर्द
औरत या
कुछ और हो जाउूं
दे दो आज़ादी
लिंग-मुक्त हो जाने की
ऐसा टापू बताओ
जहां लिंग, नस्ल, रंग, जाति की
पहचान के बिना सांस ले सकूं
बासी विचारधाराओं की कैद से
कर दो आज़ाद मुझ को
दो आज़ादी अपनी सोच का
मुक्का कसने की
आज़ादी
आग ठंडी करने की
माथों में जलते लावे बुझाउूंगा
आज़ादी
पत्थर पिघलाने की
सीने में जम गए दिल
मोम बनाउूंगा
आज़ादी
पानी में आग लगाने की
बर्फ़ हो चुके लहू में उबाल लाउूंगा
काट दो ज़ंजीरें
हदों
सरहदों
समाज के आडम्बरों की
अब काफ़ी नहीं
सिर्फ़ मुल्क की आज़ादी
मुझे चाहिए
ब्रह्मांड की आज़ादी
✍️दीप जगदीप सिंह
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