लोकी काफर काफर आखदे, तू आहो आहो आख

बुल्लेया आशिक होयों रब्ब दा, मलामत पई लाख,
लोकी काफर काफर आखदे, तूं आहो आहो आख।

इश्क मिजाजी और इश्क हकीकी में क्या फर्क होता है?

बाबा बुल्ले शाह के बिना और कौन समझा सकता है। जिसका आशिक होने से समाज लोग काफिर काफिर कहने लगे, बुल्ला उसी के नाम के घूंघरू पहन आहो आहो (हांजी-हांजी) कहता हुआ गलियों में नंगे पांव नाचता फिरता है। सैय्यद (उंची जात) बुल्ला ही अराई (नीची जात) शाह अनायत अली का मुरीद हो सकता है और जब उसकी बहनें और भाभियां कहती हैं-

बुल्ले नू समझावण आइयां भैणां ते भरजाइयां
बुल्ले तूं की लीकां लाइयां छड्ड दे पल्ला अराइयां

तो बुल्ला ही गा सकता है-

अलफ अल्हा नाल रत्ता दिल मेरा,
मैंनू ‘बे’ दी खबर न काई

‘बे’ पड़देयां मैंनू समझ न आवे,
लज्जत अलफ दी आई

ऐन ते गैन नू समझ न जाणां
गल्ल अलफ समझाई

बुल्लेया कौल अलफ दे पूरे
जेहड़े दिल दी करन सफाई

(जिसकी अल्फ यानि उस एक की समझ लग गई उसे आगे पढ़नेे की जरुरत ही नहीं। अल्फ उर्दू का पहला अक्षर है बुल्ले ने कहा है, जिसने अल्फ से दिल लगा लिया, फिर उसे ऐन-गेन नहीं भाता)

बाबा बुल्ले शाह का जन्म 1680 इसवी में बहावलपुर सिंध के गांव उच गैलानीयां में शाह मुहमंद दरवेश के घर हुआ, जो मुसलमानों में मानी जाती उंची जाति सैय्यद थे। इनका काम मस्जिदों में इमामियत और धर्म प्रचार हुआ करता था। जब बुल्ले को उस्ताद गुलाम मुर्तजा के पास तालीम दिलाने के लिए भेजा गया, तो उसने सारंगी उठा ली। मौलवी शाह मुहंमद दरवेश का ये बेटा तब बुल्ले शाह हो गया।

सैय्यदों का बुल्ले शाह फिर निकला इशक हकीकी की तलाश में और छोटी समझी जाती अराईं जाति के सूफी फकीर हजऱत शाह अनायत कादरी का मुरीद हो गया। कसूर के मौलाना का बेटा काफिर हो गया। घर वालों की नाराजगी और हकूमत का गुस्सा जब फूटा, तो बुल्ला अपना घर-बार छोड़ बनजारा हो गया।

बुल्ले शाह ने पंजाबी सूफी साहित्य को शाहकार रचनाएं दी। 162 काफीयां, एक अठवारा, एक बारहमाहा, तीन शीहहर्फीयां, 49 दोहे और 40 गांठे लिखी। नाम-जाति-पाति, क्षेत्र, भाषा, पाक-नापाक, नींद-जगने, आग-हवा, चल-अचल के दायरे से खुद को बाहर करते हुए खुद के अंदर की खुदी को पहचानने की बात बुल्ले शाह यूं कहता है-

बुल्ला की जाना मैं कौन

ना मैं मोमन विच मसीतां न मैं विच कुफर दीयां रीतां
न मैं पाक विच पलीतां, न मैं मूसा न फरओन
बुल्ला की जाना मैं कौन

न मैं अंदर वेद किताबां, न विच भंगा न शराबां
न रिंदा विच मस्त खराबां, न जागन न विच सौण
बुल्ला की जाना मैं कौन

न मैं शादी न गमनाकी, न मैं विच पलीती पाकी
न मैं आबी न मैं खाकी, न मैं आतिश न मैं पौण
बुल्ला की जाना मैं कौन

न मैं अरबी न लाहौरी, न मैं हिंदी शहर नगौरी
न हिंदू न तुर्क पिशौरी, न मैं रेहदंा विच नदौन
बुल्ला की जाना मैं कौन

न मैं भेत मजहब दा पाया, न मैं आदम हव्वा जाया
न मैं अपना नाम धराएया, न विच बैठण न विच भौण
बुल्ला की जाना मैं कौन

अव्वल आखर आप नू जाणां, न कोई दूजा होर पछाणां
मैंथों होर न कोई स्याना, बुल्ला शौह खड़ा है कौन
बुल्ला की जाना मैं कौन

और जब पैरों में घूंघरूं बांध गली गली प्यारे के गीत गाता बुल्ले शाह अनायत की नजरे इनायत से अपने पीर को पाता है, तो अपनी सखीयों (हम सब जीव आत्मा हैं) को पुकारता है-

आवो सईयों रल देवो नी वधाई
मैं वर पाया रांझा माही

अज तां रोज़ मुबारक चढ़ेया, रांझा साड्डे वेहड़े वड़ेया
हथ्थ खूंडी मोडे कंबल धरेया, चाकां वाली शकल बनाई
मैं वर पाया रांझा माही, आवो सईयों रल देवो नी वधाई

मुकट गऊआं दे विच रुलदा, जंगल जूहां दे विच रुलदा
है कोई अल्हा दे वल भुलदा, लसल हकीकत खबर न काई
मैं वर पाया रांझा माही, आवो सईयों रल देवो नी वधाई

बुल्ले शाह इक सौदा कीता, पीता ज़हर प्याला पीता
न कुझ लाहा टोटा लीता, दर्द दुखां दी गठड़ी चाई
मैं वर पाया रांझा माही, आवो सईयों रल देवो नी वधाई

1757 में अपने रांझे संग बुल्ला शाह तो इश्क हकीकी के गीत गाता हुआ, आसमान में तारा बन चमकने को इस धरती को अलविदा कह चला गया, लेकिन आज भी उसी कसूर पाकिस्तान में बाबा बुल्ले शाह की दरगाह पर उसके मुरीद सूफी गीत दिन भर गाते हुए, झूमते नजर आते हैं।

हीर-रांझे के वसल के पलों को बयान करती इस काफ़ी को आपके लिए चर्चित पंजाबी गायक जसबीर जस्सी की आवाज में यहां पर संकलित कर रहा हूं। सुनिए और आनंद लीजिए बुल्ले शाह के असली सूफी संगीत का..

Jasbir Jassi – Avo Ni Sayiyon – Baba Bulleh Shah

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