अमेरीकी राजनीति और अर्थव्यवस्था जिस तरह से पूरी दुनिया के आर्थिक और राजनैतिक हालातों को प्रभावित करती है, ठीक उसी तरह मानवीय संवेदनाओं पर भी उसका गहरा असर होता है। इसका प्रमाण एक कवि की संवेदना से बेहतर और क्या हो सकता है। इराक में अमेरीकी दमन की भयावह तस्वीर दिखाती गीत चर्तुवेदी की वैतागवाड़ी पर कुछ दिन पहले प्रकाशित हुई कविता ने मुझे कई रातों तक चैन से सोने नहीं दिया। उसी कड़ी में पंजाबी के युवा आलोचक व कवि तसकीन की एक कविता पंजाबी के प्रौढ़ कवि परमिंदरजीत द्वारा संपादित साहित्य मैगज़ीन अक्खर में छपी है। तसकीन से मेरी मित्रता पिछले करीब डेढ़ साल में हुई कुछ ही मुलाकातों जितनी पुरानी है। मार्क्सवादी विचाराधारा के इस प्रतिबद्ध मित्र का आलोचक वाला रुप तो मैंने कुछ आयोजनों में देखा था और चुनिंदा निजी मुलाकातों में कई बार चाहे मै उनकी विचारों से मैं सहमत न भी रहा होउं, लेकिन पहली बार पढ़ी उनकी कविताओं ने मुझे जरुर प्रभावित किया है। तसकीन अक्सर कहता है, अगर आप इस ओर नहीं हैं, तो इसका मतलब है आप उस ओर हैं। खैर विचारों के जाल में उलझाने की बजाए मैं उनकी पंजाबी कविता के हिंदी अनुवाद से रुबरु करवाता हूं, जिसमें वह बुश के नए अर्थों और उसके पाप का घड़ा भर जाने की बात कर रहे हैं। ये कविता भी अमेरिका में बदले राजनीतिक हालातों से प्रभावित लगती है। आप भी पढि़ए और सोचिए
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पाप का घड़ा
हम कैसे जान सकते हैं
कि घरों से थोड़ी सी दूरी पर
ग्लोबल गांव में
गोलियों की फुहार
बम्बों की बारिश
कैसे बरस रही है
सड़कों पर दौड़ रही
‘अपाहिजों’ को कुचल रही
घरों से निकलती
तेज़ रफ्तार
लम्बी गाडि़यों में
उफनता ईंधन
किसके लहू में से गुज़रता है
हम तो बुश का अर्थ
झाडि़यां ही निकालते रहे
लेकिन ‘पाताल की धरती’ ने
हमारे समय में
उलट दिए हैं
बुश के अर्थ
किसी मिथ के बदल जाने की तरह
झाड़ियां तो अब
तन्हा जिंदगियों के लिए
भूत
प्रेतों
दैत्यों जैसे
रुप बदल चुकी हैं
बुश के नए अर्थों में
धरती लाल रंग की है
जिस पर फैले हैं
बच्चों के बिलखते बोल
बच्चों के चित्थड़ों के पास बैठी माएं
भरी छातियों संग
दूध पिलाने का करती हुई इंतज़ार
पिघल रही हैं बूंद बूंद
घरों से थोड़ी सी दूरी पर
मास के लोथड़े
लहू मास
कुचले जा रहे इंसान
सब शैतान हैं
सूखे थनों से चिपकी बच्ची
धरती के दुश्मनों
स्पोलियों को जन्म नहीं देगी
पाप इस धरती से धुल रहा है
जल्दी जल्दी, धीमे धीमे
बुश के इन नए अर्थों में
हमें ‘काम से घर जाते हुए’
नथुनों में खरखरी नहीं होती
सड़ रहे मांस की
बाज़ार तो इत्र से
सराबोर हैं
बुश के इन नए अर्थों में
‘पाप का घड़ा है
जो भर कर टूट रहा है।’
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