मैं भी ब्लू लाइन का शिकारपत्रकारिता के क्षेत्र में दाखिल होते ही मैंने दिल्ली को अपनी पक्की कर्म भूमि बनाने की ठानी। बस उसी सपने को पूरा करने के लिए फरवरी के पहले हफते दस दिन की छुट्टी ले, विश्व पुस्तक मेले में किताबें छानने के साथ ही इसका जुगाड़ करने का मन बना, मैं 2 फरवरी को दिल्ली पहुंच गया। लेकिन वहां हुई घटना ने मुझे काफी सोचने पर मजबूर कर दिया है।अक्सर टीवी पर देखकर मैं हैरान होता था कि हर रोज लोग दिल्ली में ब्लू लाइन बसों के शिकार क्यों और कैसे हो रहे हैं, लेकिन अब मैं भी समझ गया हूं कि शायद स्टूडेंट्स के साथ तो ब्लू लाइन का व्यवहार कातिलाना ही है। मैं ये बात इस लिए कह रहा हूं, क्यों कि 6 फरवरी को जामिया युनिवर्सिटी बस स्टॉप से प्रगति मैदान जाने के लिए काफी देर इंतजार करते हुए मैंने देखा कि वहां पर कोई भी बस रोकने का नाम नहीं ले रहा है। कई बार स्टूडेंट्स ने सङक के किनारे जाकर बस चालकों को रोकने का इशारा भी किया, लेकिन किसी ने सहानूभूति नहीं दिखाई। काफी देर बाद एक बस चालक ने बस थोङी धीमी की तो ३०-40 युवाओं ने आगे पीछे के दरवाजों से चढ़ने की कोशिश की। पिछले दरवाजे पर भारी भीड़ को देख कर मैंने भी आगे के दरवाजे से बस में दाखिल होने की कोशिश की,लेकिन शायद चालक को इस बात से कोई सरोकार नहीं था कि क्या लोग चढ़ गए हैं या भी दरवाजे के बीचों बीच हैं। बदकिस्मति कहीए या मेरी गल्ती लेकिन मेरे हालात कुछ ऐसे ही थे। बिना परवाह किए चालक महोदय ने बस को दौड़ा दिया। मेरा बायां पैर टायर के नीचे और शरीर धड़ाम जमीन पर, न जाने चालक को थोड़ी दया आ गई कि उसने तुरंत ब्रेक लगा दी। मेरे सहित कुछ और लोगों को बस में चढ़ने का मौका मिल गया। मेरे चढ़ते ही चालक महोदय ने झाड़ पिलाई, पिछले दरवाजे से चढ़े होते कम से कम गिर जाने पर बस तो न रोकनी पड़ती और शायद तुम चोट लगने से बच जाते। पांव से बह रहे खून को देख कर कडंक्टर साहब ने भी खूब दरिया दिली दिखाई और अगले चौक पर होली फैमिली अस्पताल के सामने बस रुकवाकर इलाज करवाने की सलाह दे डाली। पहले तो ये लगा कि शायद कडंक्टर की अस्पताल वालों से कहीं कोई सेंटिंग तो नहीं। लेकिन और कोई चारा नजर न आता देख मेरा दोस्त आलोक सिंह साहिल मुझे इस अस्पताल की एमरजेंसी में ले गया। ये भी सुनने में आया कि जामिया बस स्टॉप पर कुछ दिन पहले किसी बस वाले की स्टूडेंट्स के साथ तकरार हुई थी, इसलिए कोई भी बस वहां पर नहीं रोकी जा रही थी। इन सब बातों के बावजूद मुझे समझ में नहीं आ रहा कि ऐसे हादसों की वजह क्या है और इनमें पर कब और कैसे लगाम लगेगी। अगर आपके पास कोई हल हो तो मुझे और उन सभी रोजाना बस यात्रियों को बताने का कष्ट करें। आभार होगा।ये भी बता दें कि क्या दिल्ली मेरे सपने को सच होने देगी?
कहां गया दिल्ली वालों का दिल
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